पर्यावरण सम्बंधी चिंताएं एवं कृषि
कृषि की चिरस्थायी अवहेलना के अलावा, रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का अतिशय और बिना विचारे उपयोग, जिसे इन रसायनों की निर्माता कम्पनियों के हित में तथा कृषि संकट को सामयिक रूप से टालने के लिये राज्य द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है, सदियों से अपने उपजाऊपन के लिये विख्यात हमारे देश में मिट्टी की उर्वरता को दीर्घकालीन रूप से क्षतिग्रस्त कर रहा है. इसके अलावा, अरक्षित रूप से रसायनों के प्रभाव में पड़ने और खतरनाक और जोखिम भरे रसायनों का धीमे-धीमे रिस-रिस कर मिट्टी और जल में प्रवेश के परिणामस्वरूप ऐसे इलाकों में, जहां भारी मात्रा में कीटनाशकों और उर्वरकों के इस्तेमाल का लम्बा इतिहास रहा है, किसानों के बीच कैंसर समेत तमाम किस्म के रोगों में भयावह बढ़ोत्तरी हो रही है. ऐसे अंचलों में कैंसर के मामलों का असाधारण रूप से भारी तादाद में देखा जाना - जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है - 'विकास' इस अंधेरे पक्ष की जोरदार पुष्टि है.
रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल के मुद्दे ने अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा नग्न रूप से इस्तेमाल में लाये जा रहे दुहरे मानदंडों को उजागर किया है. सर्वप्रथम, एक ओर इन शक्तियों ने भारत जैसे देशों को खेती के लिये रासायनिकों का सघन उपयोग करने वाला मॉडल अपनाने पर विवश कर दिया है, ताकि उनके अपने देशों के कृषि-व्यवसाइयों के हितों की रक्षा की जा सके. दूसरी ओर, अब वे भारतीय उत्पादों को इस आधार पर खारिज कर रहे हैं कि वे 'अस्वास्थ्यकर' हैं और उनके उत्पादन में हद से ज्यादा मात्रा में कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया है. इसके अलावा अति-धनाढ्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अमरीका और ब्रिटेन की अपेक्षा भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में खाद्य-पदार्थ के लिये सुरक्षा के बिल्कुल भिन्न मापदंड अपनाती हैं. एक ही कम्पनी द्वारा बेचे जाने वाले एक ही सामान में कीटनाशकों की मात्रा भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न होती है, जो दुहरे मानदंडों का उत्कृष्ट उदाहरण है और तीसरी दुनिया के देशों की जनता के स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा की कोई फिक्र न रहने का परिचायक है. अतः इस मांग को उठाना जरूरी है कि भारत सरकार रसायनों के इस्तेमाल पर वैज्ञानिक रूप से नियंत्रण कायम करे और वैकल्पिक कृषि तकनीकों तथा जैविक कीटनाशकों व उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा दे.
कृषि की ढांचागत समस्याओं का सामना करने की बजाय भारतीय शासक वर्ग 'अनुवांशिक रूप से रूपांतरित जैविकों' (जैसे जीएम बीजों) को बढ़ावा देने में लगा हुआ है. कपास की खेती में बीटी कॉटन का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है और इसके नतीजे काफी खौफनाक हैं. बहुतेरे मामलों में शुरूआत में उच्च फलन के बाद बहुत जल्दी ठहराव आ गया और विज्ञापनों में बताए गए फायदों के विपरीत वास्तविकता में दीर्घकालिक तौर पर कीटनाशकों के इस्तेमाल में बढ़ोत्तरी हुई. इस सबके अलावा, बीटी कपास की खेती के इलाकों में किसानों द्वारा भारी संख्या में खुदकुशी की जारी घटनाएं दिखलाती हैं कि कम-से-कम वर्तमान भारतीय स्थितियों में जीएम बीज खेती और खेतिहरों के लिए अभिशाप हैं.
इसके अलावा, जीएम जैविकों के इस्तेमाल से जुड़ी कई गंभीर पारिस्थितिक-सम्बंधी चिंताएं भी हैं, मसलन जैव-विविधता और मिश्रित फसल उगाने की कृषि-संस्कृति पर इनका बुरा असर. जीएम जैविकों के इस्तेमाल से खर-पतवार के साथ-साथ आस-पास के दूसरे पौधे भी मर जाते हैं. हमारे देश में 'खर-पतवार' एकदम 'अनुपयोगी' पौधे नहीं माने जाते. बहुतेरे इलाकों में लोग उनके पत्तों का सब्जियों या पशुओं के चारे की तरह इस्तेमाल करते हैं. ठीक इसी तरह जीएम जैविकों से वे औषधीय पौधे भी नष्ट हो जाते हैं जो स्वास्थ्य और पशु चिकित्सा के लिहाज से मूल्यवान होते हैं. इन सब कारणों से हमें नकदी और खाद्यान्न, दोनों तरह की फसलों में इन घातक जैविकों के इस्तेमाल पर तत्काल प्रतिबंध/स्थगन की मांग उठानी चाहिए.
अंतर्राष्ट्रीय कृषि-व्यापार के स्वार्थ में थोपे गए कॉरपोरेट-निर्देशित इन तकनीकी 'नुस्खों' का विरोध करते हुए, हम कृषि विकास की ऐसी वैकल्पिक प्रविधियों को ग्रहण किए जाने की मांग करते हैं, जो भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हों, और जिनको राज्य की योजना के तहत राज्य द्वारा वित्तपोषित और प्रोत्साहित किया जाता हो. देशी बीजों, खाद एवं अन्य लागत सामग्रियों के समुचित इस्तेमाल के साथ-साथ, हजारों सालों से भारतीय किसानों के संचित किसानी ज्ञान तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दलाल नहीं बने ऐसे देशभक्त कृषि वैज्ञानिकों की सलाह के बल पर इस रास्ते पर आगे बढ़ना बिल्कुल सम्भव है. हमें जन आंदोलनों के जरिये सरकार पर दबाव डालना होगा और उसे मजबूर करना होगा कि वह इस तरह के षड्यंत्रों को रोके और सर्वांगीण कृषि-सुधार के आधार पर कृषि विकास की कृषक-पक्षधर एवं जन-पक्षधर रणनीति का रास्ता पकड़े.
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